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सब अपनों पर / हरीश भादानी

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सब अपनों पर
मुट्ठी भर-भर
विस्मृतियों की राख फेंकता जाऊँ !
सब अपनों पर
संक्रामक स्याही में
डुबो-डुबो
दूरी की कलम फेरता जाऊँ !
यूँ तो
सब अपनों के
अपनापे का घोल तरल है,
आकर्षक है
पर सब
बँटे सभी के लिये प्रश्न है केवल
उत्तर अभी नहीं जन्मा है,
मौसम बेमौसम की हवा-
हवा की हल्की सी टकराहट-
बदरंग देती है-
अपनापे को घोल
घोल में घुले हुओं की
अलगाती अस्तित्व,
सभी बेरूप
नुकीले
तीखे-तीखे चुभने वाले !
ऐसे सब अपनों पर
मुट्ठी भर-भर
विस्मृतियों की राख उड़ाता जाऊँ !
ऐसे सब अपनों को
उनके बौनेपन की,
कुबड़े हुए अहम् की,
कुँठा की
बदनामी देता जाऊँ !