भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ विश्वकर्माओं ने दी / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:14, 20 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीश भादानी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> कुछ विश्वकर्माओ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ विश्वकर्माओं ने दी
पुरानी-सी हवेली !
हवेली क्या-
धरोहर हैं हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के बाद
पनपो सभ्यता की,
विवशता कहदें
या अपने साहस को प्रशंसा दें
कि हम अपने कुनबे सहित
रहते रहे हैं इस हवेली में
जिसमें दीमक ही दीमक लगी हैं
जाले तने हैं,
हर घड़ी चमगादड़ों की भीड़ चीखती हैं;
वर्षों-
गर्मिणी रहकर
हमारी सांस ने
नयी सम्भावनाएं जायी है,
वे न रह पायें शायद
ऐसी हवेली में
इसलिये अथ से
हमारा साथ देती
आस्था ! तू आ,
लम्बे हाथ-
जिजीविषाओं के फिराकर
पोछें-जाले-दीमकें,
हम मिट्टी गोद लायें,
दीवारें नयी कर दें,
तू आ !
अँजुरियां भर-भर उलीचें धूप
आंगन में,
कि अंधी हो जायें
सभी चमगादड़ें
हवा महके हवेली में !
तू आ !!