मन की मुट्ठी में गाँव / मनोज श्रीवास्तव

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मन की मुट्ठी में गाँव

मन की मुट्ठी में
जो बूढ़ा गाँव है,
बैसाखियों के सहारे
खेत की मेढ़ों पर डगमग चलते हुए
  वक़्त की आमरण मार-लताड़ से भी
  छूटकर बिखरता-बिसरता नहीं,
  पड़ा रहता है
  पूरी सक्रियता से
  खाते-पीते, सोते-जागते
  हंसते-गाते, रोते-रिरियाते
  शहर के सुदूर परित्यक्त ओसारे में
  बिटिया के ब्याह की चिंता में

नीम-तले चिलम सुड़कता गाँव ग़मगीन है
करेंट लगाने से गीध की मौत पर,
अनाज पछोरता गाँव उत्सव मना रहा है
सूखे इनार में फिर पानी आने पर,
पनिहारिनों की गुनगुनाहट सुनता गाँव
        झूम रहा है
        चइता-बिरहा गा रहा है
प्रधान की किसी मुनादी पर
गंगा-नहान से लौटता गाँव धर्म-स्नात है
मजार पर फ़कीर की बरसी में,
लू से अधमरा गाँव खा-अघा रहा है
बाबा के डीह पर भोज-भंडारे में,
हाट-मेले से लौटकर
गाँव जमा हुआ है स्टेशन पर
ऊंची हील सैंडिल पहनी लड़की को देखने,
गाभिन गायों वाला गाँव पगुरा रहा है
अलहदी बरखा के बिसुकने पर,
खाली खलिहानों में क्रिकेट-मैच खेलता गाँव
सपने पाल रहा है
शहर के साथ लंगोटिया याराना निभाने का

गाँव मन की मुट्ठी खुलने पर भी
पड़ा रहता है सुकून से वहीं,
मन के अछोर परास में
ओझल-अनोझल फिरता रहता है
सिर पर अंगोछा बांधे
मुंह में बीड़ी दबाए

  मन की मुट्ठी में
  जो बूढ़ा गाँव है
  ज़िंदा रहेगा
  मन की देह में
  आबाद रहने तक.

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