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मैं जीना चाहती हूँ / विजय कुमार पंत

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मैं जीना चाहती हूँ...

मैं हवा की
मानिंद हूँ
तुम जान कर भी
नहीं समझते
बंद करना चाहते हो मुझे
इन
लक्ष्मण रेखाओं
में........

भाव को व्यक्त
करने की विधा से
खीचना चाहते हो
मेरा चित्र
जानते हुए भी की
मैं हवा की मानिंद हूँ........

ये सृजनशीलता
स्वप्नलोक ,शब्द और ज्ञान
तुमको
संतुष्टि देते है
और ये अभिमान
कि तुम मुझे रच रहे हो
ये जानते हुए भी
कि..
मैं हवा की मानिंद हूँ.....

मुझे कोई आपत्ति नहीं
तुम मुझे जिस तरह
चाहो कैनवास
पर उतारो
पर मुझे अपने महलों में कैद
कर मत मारो.......

मुझे तुम्हारी सुडौल
मूर्तियों की तरह रहना पसंद नहीं
मैं एक अनजान शिशु की
हंसी बनकर जीना चाहती हूँ
सबके समग्र भावो को पीना चाहती हूँ
मैं कविता हूँ
बन्धनों में निष्प्राण...
अभ्यस्त हूँ
निर्बाध आवागमन की
अब अपनी आज़ादी
और...
उन्मुक्त होकर
जीना चाहती हूँ...