भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँखें देख नहीं पाती थीं / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:27, 22 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=अरघान / त्रिलोचन }} {{KKCatKavita‎}} <poem> आद…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आदमियों की वह मछेह, वह भीड़ ठसाठस,
उठती हुई गनगनाहट, आगे का रेला,
पीछे का दबाव, चारों ओर की कसाकस,
आदमियों के सिर ही सिर, ऐसा था मेला ।
सरसों छींटो भूमि तक न जाए वह ठेला-
ठेली थी, आँखें कुछ देख नहीं पाती थीं,
कान सुन नहीं पाते थे, मिट्टी का ढेला
ही मनुष्य था यदि साँसें बाहर जाती थीं
तो फिर अंदर फिर कर कभी नहीं आती थीं,
'हाय', 'मरा' 'देख कर' 'बचाओ' 'पैर तो गया'
'कहीं खड़ा हो पाता तो' 'चक्कर खाती थीं'
'रमिया-बुधिया उधर', 'महेसर कहाँ खो गया।'

दब पिच कर कितने ही जन दम तोड़ रहे थे,
माया, ममत, माल मता सब छोड़ रहे थे ।