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चतुर्थ अंक / भाग 1 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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विस्मृताअभिनयं सर्वं यत्पुरातन-वेदितम्,
शशाप भरत: कोपात् वियोगात्तस्य भूतले
-पद्म्पुराण्

एष दीघायुरायुर्जात्मात्र एव
उर्वश्या किमपि निमित्तमवेक्ष्य
मम् हस्ते न्यासीकृत:
-विक्रमोर्वशीयम्

स्थान- महर्षि च्यवन का आश्रम्
[महर्षि की पत्नी सुकन्या उर्वशी के नवजात को गोद में लिए खड़ी है. चित्रलेखा का प्रवेश]

सुकन्या
अच्छा, तू आ गई चित्रलेखे? निंदिया मुन्ने की,
अकस्मात्, तेरी आहट पाकर यॉ उचट गई है,
मानो, इसके मन में जो अम्बर का अंश छिपा है
जाग पड़ा हो सुनते ही पद-चाप स्वर्ग की भू पर.
यह प्रसून छविमान मही-नभ के अद्भुत परिणय का,
जानें, पिता-सदृश रस लोभी होगा क्षार मही का
या देवता-समान मात्र गन्धॉ का प्रेमी होगा?

चित्रलेखा
मही और नभ दो हैं, ये सब कहने की बातें हैं
खोदो जितनी भूमि शून्यता मिलती ही जायेगी.
और व्योम जो शून्य दीखता, उसके भी अंतर में
भाँति-भाँति के जलद-खंड घूमते ; और पावस में
कभी-कभी रंगीन इन्द्रध्नुषी भी उग आती है.

सुकन्या
और इन्द्रधनुषी के उगने पर विरक्त अम्बर की क्या होती
है दशा?

चित्रलेखा
तुम्हें ही इसका ज्ञान नहीं है?
योगीश्वर तज योग, तपस्वी तज निदाधमय तप को
रूपवती को देख मुग्ध इस भाँति दौड़ पड़ते हैं,
मानो, जो मधु-शिखा ध्यान में अचल नहीं होती थी,
ठहर गई हो वही सामने युवा कामिनी बनकर
भूल गई, जब किया स्पर्श तुमने ध्यानस्थ च्यवन का,
ऋषि समाधि से किस प्रकार व्याकुल-विलोल जागे थे?

सुकन्या
किंतु, चित्रलेखे! मुझको अपने महर्षि भर्त्ता पर
ग्लानि नहीं, निस्सीम गर्व है!

चित्रलेखा
यही गर्व मुझको भी
हो आता है अनायास उन तेजवंत पुरुषॉ पर,
बाधक नहीं तपोव्रत जिनके व्यग्र-उदग्र प्रणय का,
न तो प्रेम ही विघ्न डालता जिनके तपश्चरण में;
प्रणय-पाश में बँधे हुए भी जो निमग्न मानस से
उसी महासुख की चोटी पर चढे हुए रहते हैं,
जहाँ योग योगी को, कवि को कविता ले जाती है
और निरंजन की समाधि से उन्मीलित होने पर
जिनके दृग दूषते नहीं अंजनवाली आंखॉ को.
तप का कर उत्सर्ग प्रेम पर तपोनिधान च्यवन ने
मात्र तुम्हे ही नहीं, जगत् भर की सीमंतिनियॉ को
अमिट, अपार, त्रिलोकजयी गौरव का दान दिया है.
और पुन: यौवन धारण कर उन अमोघ द्रष्टा ने
दिखा दिया, इन्द्रिय-तर्पण में कोई दोष नहीं है.
एक प्रेम वह, जो विधुसा ऊपर उठता जाता है
होकर बीचॉबीच किन्हीं दो ऐसे ताल-द्रुमॉ के
जिन वृक्षॉ ने कभी प्रणय-आलिंगन नहीं किया है.
और दूसरा वह, पड़कर जिसके रस-आलोड़न में
दो मानस ही नहीं एक, दो तन भी हो जाते हैं
प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर, केवल आधा है;
मन हो एक, किंतु, इस लय से तन को क्या मिलता है?
केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना, अतृप्ति ललक की;
दो निधि अंत:क्षुब्ध, किंतु संत्रस्त सदा इस भय से,
बाँध तोड़ते ही व्रत की विभा चली जाएगी;
अच्छा है, मन जले, किंतु तन पर तो दाग नहीं है.
मृषा तर्क, मन मलिन हुआ तो तन में प्रभा कहाँ है?
तन-मन का यह भेद सुकन्ये! मुझे नहीं रुचता है.
बलिहारी उस पूर्ण प्रेम की जिसकी क्षिप्र लहर में
केवल मन ही नहीं अंग संज्ञा भी खो जाती है.
धन्य त्रिया वह जो बलिष्ठ नर की पिपासु बाँहॉ में
आंख मूम्द रस-मग्न प्रणय-पीड़न असह्य सहती है,
जैसे बहता कुसुम तरंगित सागर की लहरॉ पर.
धन्य पुरुष जो वर्ष-वर्ष निष्काम, उपॉषित रहकर
जथरानल को तीव्र, क्षुधा को दीपित कर लेते हैं.
सतत भोगरत नर क्या जाने तीक्ष्ण स्वाद जीवन का?
उसे जानता वह, जिसने कुछ दिन उपवास किया हो!
सदा छाँह में पले, प्रेम यह भोग-निरत प्रेमी का;
पर, योगी का प्रेम धूप से छाया में आना है

सुकन्या
एकचारिणी मैं क्या जानूँ स्वाद विविध भोगॉ का?
मेरे तो आनन्द-धाम केवल महर्षि भर्त्ता हैं.
योग-भोग का भेद अप्सरा की अबन्ध क्रीड़ा है;
गृहिणी के तो परमदेव आराध्य एक होते हैं,
जिससे मिलता भोग, योग भी वही हमें देता है.
क्या कुछ मिला नहीं मुझको दयिता महर्षि की होकर?
शिखर-शिखर उड़ने में, जानें, कौन प्रमोद-लहर है!
किंतु, एक तरु से लग सारी आयु बिता देने में
जो प्रफुल्ल, धन, गहन शांति है, वह क्या कभी मिलेगी
नए-नए फूलॉ पर नित उड़ती फिरनेवाली को?
नहीं एक से अधिक प्राण नारी के भी होते हैं,
तो फिर वह पालती खिलाकर क्या विभिन्न पुरुषॉ को?
और पुरुष कैसे जी लेता पाए बिना हृदय को?
स्यात् मात्र छू भित्ति योषिता के शरीरमन्दिर की,
धनु, प्रसून, उन्नत तरंग की जहाँ चित्रकारी है.
पर, ये चित्र अचिर; भौहॉ के धनुष सिकुड़ जाएँगे,
छूटेगी अरुणिमा कपोलों के प्रफुल्ल फूलॉ की.
और वक्ष पर जो तरंग यौवन की लहराती है.
पीछे समतल छोड़ जरा में जाकर खो जाएगी.
तब फिर अंतिम शरण कहाँ उस हतभागी नारी को?
यौवन का भग्नावशेष वह तब फिर किसे रुचेगा?
यहाँ देव-मन्दिर में तब तक ही जन जाते हैं,
जब तक हरे-भरे, मृदु हैं पल्लव-प्रसून तोरण के
और भित्तियॉ के ऊपर सुन्दर, सुकुमार त्वचा है.
टूट गया यदि हर्म्य, देवता का भी आशु मरण है.
इसीलिए कहती हूँ, जब तक हरा-भरा उपवन है,
किसी एक के संग बाँध लो तार निखिल जीवन का;
न तो एक दिन वह होगा जब गलित, म्लान अंगॉ पर
क्षण भर को भी किसी पुरुष की दृष्टि नहीं विरमेगी;
बाहर होगा विजन निकेतन, भीतर प्राण तजेंगे
अंतर के देवता तृषित भीषण हाहाकारॉ में.

चित्रलेखा
कौन लक्ष्य?

सुकन्या
जिसको भी समझो.

चित्रलेखा
मैं तो तृषित नहीं हूँ,
न तो देवता ही व्याकुल मेरे प्रसन्न प्राणॉ के.
दृष्टि जहाँ तक भी जाती है, मुझे यही दिखता है,
जब तक खिलते फूल, वायु लेकर सुगन्ध चलती है,
खिली रहूँगी मैं, शरीर में सौरभ यही रहेगा.