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चतुर्थ अंक / भाग 2 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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सुकन्या
सो, केवल इसलिए कि तुम अप्सरा, सिद्ध नारी हो.
विगलित कभी कहाँ होता यौवन तुम अप्सरियॉ का?
पर, यौवन है मात्र क्षणिक छलना इस मर्त्य भुवन में,
ले उसका अवलम्ब मानवी कब तक जी सकती है?

अप्सरियाँ जो करें, किंतु, हम मर्त्य योषिताऑ के
जीवन का आनन्द-कोष केवल मधु-पूर्ण हृदय है
हृदय नहीं त्यागता हमें यौवन के तज देने पर,
न तो जीर्णता के आने पर हृदय जीर्ण होता है
एक-दूसरे के उर में हम ऐसे बस जाते हैं,
दो प्रसून एक ही वृंत पर जैसे खिले हुए हों.
फिर रह जाता भेद कहाँ पर शिशिर, घाम, पावस का?
एक संग हम युवा, संग ही संग वृद्ध होते हैं.
मिलकर देते खेप अनुद्धतमन विभिन्न ऋतुऑ को;
एक नाव पर चढ़े हुए हम उदधि पार करते हैं.
अप्सरियाँ उद्विग्न भोगतीं रस जिस चिर यौवन का,
उससे कहीं महत् सुख है जो हमें प्राप्त होता है
निश्छल, शांत, विनम्र, प्रेमभरे उर के उत्सर्जन से.

चित्रलेखा
सचमुच, यह सुख अप्रमेय है, मन ही नन्दि-निलय है
क्षन भर पाकर हृदय-दान जब उतना सुख मिलता है,
तब कितना मिलता होगा यह सुख उन दम्पतियॉ को
जो सदैव के लिए हृदय उत्सर्जित कर देते हैं.
किंतु, सुकन्ये! डरी नहीं तू, जब तेरे स्पर्शन से
मुनिसत्तम खन्डित समाधि से कोपाकुल जागे थे?
क्रुद्ध तापसॉ से तो अप्सरियाँ भी डर जाती हैं.

सुकन्या
डरी नहीं मैं? हाय चित्रलेखे! कौतुहल से ही
मैने तनिक पलक खींची थी ध्यानमग्न मुनिवर की.
पर, नयनो के खुलते ही उद्भासित रन्ध्र-युगल से,
लगा, अग्नि ही स्वयं फूट कर कढ़े चले आते हॉ,
और नहीं कुछ एक ग्रास में मुझे लील जाने को.
रंच-मात्र भी हिली नहीं, निष्कम्प, चेतनाहीना
खड़ी रही उस भयस्तंभ-पीडिता, असंज्ञ मृगी-सी
जिसकी मृत्यु समक्ष खड़ी हो मृग-रिपु की आंखॉ में.
पर, मैं जली नहीं तत्क्षण पावक ऋषि के नयनॉ का
परिणत होने लगा स्वयं शीतल मधु की ज्वाला में
मानो, प्रमुदित अनल-ज्वाल जावक में बदल रहा हो
नयन रक्त, पर, नहीं कोप से, आसव की लाली से.
सहसा फूट पड़ी स्मिति की आभा ऋषि के आनन पर;
लौट गया मेरी ग्रीवा पर आकर हाथ प्रलय का
ज्यॉ ही हुई सचेत की लज्जा से सुगबुगा उठी मैं
पट सँभाल कर ख्गड़ी देखने लगी बंक लोचन से,
अब, जाने क्या भाव सुलगते हैं महर्षि के मुख पर.
अनुद्विग्न हौठे मुनीश्वर, बोले अमृत गिरा से
सौम्ये! हो कल्याण, कहाँ से इस वन में आई हो?
सुर-कुल की शुचि-प्रभा या कि मानव कुल की तनया हो?

कहाँ मिला यह रूप, देखते ही जिसको पावक की
दाहकता मिट गई, स्थाणु में पत्ते निकल रहे हैं?
“वरण करोगी मुझे? तुम्हारे लिए जरा को तज कर
शुभे! तपस्या के बल से यौवन मैं ग्रहण करूँगा
प्रौढ़ मेघ, पादप नवीन,मदकल, किशोर-कुंजर सा.

डरो नहीं, यह तपोभंग च्युति नहीं,सिद्धि मेरी है.
पहले भी जब हुआ पूर्ण कटु तप महर्षि कर्दम का,
स्वर्ग नहीं, ऋषि ने वर में नारी मनोज्ञ मांगी थी.
सो तुम सम्मुख खड़ी तपस्या के फल की आभा-सी,
अब होगा क्या अपर स्वर्ग जिसका सन्धान करूँ मैं?
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?

”मणि-माणिक्य नहीं, तप केवल एक रत्न तापस का;
शुचिस्मिते! मैं वही रत्न तुमको अर्पित करता हूँ.
हम-तुम मिलकर साथ रहेंगे जहाँ पर्णशाला में,
शुभे! स्वर्ग वरदान मांगने वहाँ स्वयं आएगा.”

 

चित्रलेखा
कीर्त्तिमान की कीर्त्ति, साधना भावुक तपोव्रती की
जो रसमय उद्वेग त्रिया के उर में भर सकती है,
वह उद्वेग भला जागेगा मणि, माणिक्य, मुकुट से?
धन्य वही जो विभव नहीं, यश को अर्पित होती है.

सुकन्या
चित्रे! मैं भर गई, न जानें, किस अपार महिमा से?
प्रथम-प्रथम ही जाग उठा नारीत्व विभासित होकर.
लगा, सूर्य में चमक रहा जो, वह प्रकाश मेरा है,
महाव्योम में भरे रत्न् मुझसे ही छिटक पड़े हैं,
नाच रहीं उर्मियाँ भंगिमा ले मेरे चरणॉ की,
दौड़ रही वन में, जो, वह मेरी ही हरियाली है.
लौट गए थे हो निराश शत-शत युवराज जहाँ से,
वही द्वार खुल गया श्रवण कर यह प्रशस्ति तापस की,
“हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?’

हाय चित्रलेखे! प्रशस्तियाँ क्या-क्या नहीं सुनी थीं?
किसे नहीं मुख में दिखा था पूर्ण चन्द्र अम्बर का,
नयनॉ में वारुणी और सीपी की चमक त्वचा में?
पर, अदृश्य जो देव पड़े थे गहन, गूढ़ मन्दिर में,
उनका वन्दन-गान किसी ने कहाँ कभी गाया था?
लौट गए सब देख चमत्कृत शोणित, मांस, त्वचा को,
रंगॉ के प्राचीर, गन्ध के घेरॉ से टकराकर;
कोई भी तो नहीं त्वचा के परे पहुंच पाया था.
सब को लगा मोहिनी-सी मुझमें कुछ भरी हुई है,
पर, यह सम्मोहन-तरंग आती है उमड़ जहाँ से,
भीतर के उस महासिन्धु तक किसकी दृष्टि गई थी?
देखा उसे महर्षि च्यवन ने और सुप्त महिमा को
जगा दिया आयास मुक्त, निश्छल प्रशस्ति यह गाकर,
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?

लगा मुझे, सर्वत्र देह की पपरी टूट रही है,
निकल रहीं हैं त्वचा तोड़ कर दीपित नई त्वचाएं;
चला आ रहा फूट अतल से कुछ मधु की धारा-सा,
हरियाली से मैं प्रसन्न आकंठ भरी जाती हूँ.
रही मूक की मूक, किंतु, अम्बर पर चढ़े हृदय ने
कहा, ‘गूढ़ द्रष्टा महर्षि ,तुम मृषा नहीं कहते हो;
परम सत्य की स्मिति उदार, मैं देवी, मैं नारी हूँ.
रूप दीर्घ तप का प्रसाद है, विविध साधनाओं से
तातस, प्रग्यावान पुरुष जो सिद्धि लाभ करते हैं,
अनायास ही सुलभ शक्ति वह रूपमती नारी को
नारी का सौन्दर्य विश्व-विजयिनी, अमोघ प्रभा है

“सचमुच ही फूटते स्पर्श से पत्र अपत्र द्रुमॉ में,
धरती जहाँ चरण उसर में फूल निकल आते हैं.
मैं अनंत की प्रभा, नहीं अनुचरी किरीत मुकुट की,
प्रणय-पुण्यशीला स्वतंत्र मैं केवल उसे वरुंगी,
जिसमें होगी ज्योति किसी दारुणतम तपश्चरण की.
किंतु, हाय, तुम एक बार क्यॉ नहीं पुन: कहते हो,
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?