प्रस्तावना
हिन्दी कविता के बहु-परिवर्तनकारी दौर में अर्थात वर्ष १९४० के बाद से, विविध प्रयोगधर्मी प्रवृत्तियों के कारण अधिकाँश कवितायेँ शनै: शनै: अंतर्मुखी, व्यक्तिपरक, रहस्यमयी, आत्मप्रवंचनात्मक और स्वांत: सुखाय होती गईं. बेशक सातवें दशक तक, कविताओं में बोधात्मकता बनी हुई थी और पाठक उनके पठन-पाठन से उतना उचाट नहीं हुआ था, जितना उसके बाद से होने लगा. कविताओं में गुप्त अनुभूतियों और नितांत व्यक्तिगत अनुभवों के अंत:पाक के चलते यह कहना जायज लगता है कि अभिव्यक्तियाँ साधारणीकृत नहीं रहीं. कविताओं में उनकी जाती जिन्दगी के संघर्षों, इसके बेहतरीकरण के लिए स्पर्धाओं और द्वंद्वों तथा सुख-सुविधाओं को हासिल करने की उनकी ज़द्दोज़हद से उद्भूत उनकी पीड़ाओं को एकदम गौड़ बना दिया है.