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दरवाज़े पर आ बैठा वसंत / मनोज श्रीवास्तव

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दरवाज़े पर आ बैठा वसंत

दरवाजे पर आ बैठा
लपटों में लहूलुहान
वसंत

धुमकते धुएं की गंध लेकर
बंद दरवाजों की दरारों से रिसकर
मेरी तिपाई पर
वह निडर
बरसों से भूखे बर्तनों में
एक रोटी की शक्ल में
आ बैठा

उसे नज़रों से उलट-पलट
बार-बार टटोलकर
मैंने एहसास किया
कि वह बदल रहा है
गाँव से शहर में,
शहर से महानगर में,
महानगर से
बारूदी शैय्या पर
आराम फरमाते देश में,
जहां वसंत के गीत गाए जाएं
तो कैसे?
पतझड़ झेलते सावन के स्वागत में
लस्त-पस्त मोर नचाए जाएं
तो कैसे?
रंगों, छंदों, ढंगों में
उसके प्रशस्तिगान गाए जाएं
तो कैसे?

दरवाजे पर आ बैठा
झूठी शान से ग्रस्त
शब्दकोशों से परित्यक्त
अप्रिय तत्सम शब्द की भाँति
वसंत,
जिसके प्रदूषणग्रस्त साए में
ढल रहा है
एक पोलियो-पीड़ित देश
जिसका बहुरंगी परिवेश
पाल रहा है
नर-नाग के लाड़-प्यार से
इस नव-संस्कृति के
बेशुमार बदतमीज़ शब्द
जो आए दिन सार्थक होते रहते हैं
जो आए दिन
सार्थक होते रहते हैं
तमतमाते रोजनामचे में
जिनकी आंच से
पिघल रहे हैं
संहिताओं, स्मृतियों, महाकाव्यों के
नीति-परक आचार-विचार
और परिणत हो रहे हैं
महानगरीय चौराहों पर
अजूबे से जीवनादर्शों में

दरवाजे पर आ बैठा
फ़िज़ूल-सी प्रतिध्वनि करते
घंटा-घड़ियाल, गुरुवाणी-अजान
की ताण्डवी गूँज में
दिशाओं से सिर टकराता-फोड़ता
वसंत,
जो अपने लड़खड़ाते पैरों
लटकती गरदन
वाले जिस्म के लुंज-पुंज हाथों से
लिखना चाहता है
स्वर्णिम अतीत जैसा वर्त्तमान
जिसका ना कोई भविष्य है
न कोई गंतव्य

दरवाजे पर आ बैठा
जनोपेक्षित, बेहाल
कवि-कुमार
वसंत,
जिसे नसीब नहीं है
अशोक-तरु की छाया
और उसके नीचे आयोज्य मदनोत्सव
जिसे प्यास है
पौराणिक प्रकृति की,
पर, चतुर्दिक रेंग रहे
गुत्थम-गुत्थ इतरलिंगी उसे
उबका रहे हैं
आइन्दा
हर वर्ष के उसके आवर्तन से

दरवाजे पर आ बैठा
वसंत,
आँखों में दहशत पिए
पिंजरे से पलायित
बरसों से भूखे शेर की तरह
जो उलट-पलट भागते हुए
खरोंच रहा है
अपने ही पुराण और इतिहास
जिससे लगातार बहते रक्त में
बह रही हैं
स्वास्थकर व्यवस्थाएं
जिन्हें परिवर्तन के खौफनाक भेडियें
अपनी रेगमाली जीभ से
चाट-चाट मिटाते जा रहे हैं
हमारी दिगान्तरकारी हस्तियाँ
जिनकी प्रतिध्वनि
गूंजती रही है चतुर्दिक
जिससे भन्ना उठते रहे हैं
रावण, कंस, दुर्योधन
सीज़र, चंगेज़ और सिकंदर.