भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्कायस्कोप / मनोज श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Dr. Manoj Srivastav (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:12, 2 अगस्त 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


स्कायस्कोप


यह आकाश
सपनों की तरह
असीम, अक्षुण
और बेदाग़ है,
गगनचुम्बी भवनों से बंधा
यह नील चित्रपट
कहीं सावन की फुहार है
कहीं वासंती पीताम्बर
कहीं पतझड़ की आग है

चिमनी तूलिकाओं से निकलकर
क्षुब्ध नसनुमा धुएं
जीव-जगत की पहेलियाँ
चित्रित करते हैं
और नए बिम्ब रंग बिखेर
पल भर में
उन्हें हल कर देते हैं

बदरंगे बदराते बादल
किरण-कमानों से
आहत हो-हो
संयोग-वियोग-दुर्योग के
कल्पनातीत
इन्द्रधनुषी चित्र उगल देते हैं

बादल की बाँहें
धुंएँ पहन
आकाशीय रंग में
लोपित होने तक
लम्बे बने रहते हैं
मानोकि कोई विराट बिद्ध
सप्त महाद्वीपों पर
अपने वरद हस्त
फैलाता जा रहा हो.