भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गजगामिनि / शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

Kavita Kosh से
Shubham katare (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:43, 2 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि । हँससि किमर्थं त्वं माम दृष्ट्वा , ति…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि ।
हँससि किमर्थं त्वं माम दृष्ट्वा ,
तिष्ठ क्षणं हे कामिनि।
मार्गे चलसि सर्वतः पश्यसि ,
हे घनविद्युद्दामिनि।
खण्ड-खण्डितं पण्डित हृदयं
मम मन-अन्तर्यामिनि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि ।
स्वात्मानं पश्यन्त्यादर्शे ,
लज्जास्मित-गौरांगिनि।
अधोमुखी विलोकयसि धरणीं ,
निजस्वरूप-अभिमानिनि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि ।
कथयसि कथं न किं कामयसे, 
हे भावी-गृहस्वामिनि।
शीघ्रं कुरु हर मम परितापं ,
कामज्वर-अपहारिणि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि ।


हे लघु वस्त्रे हे नयनास्त्रे ,
हे मम मनोविलासिनि।
मा कुरु वक्र-दृष्टि-प्रक्षेपं
भो भो मारुति-वाहिनि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि ।