भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुरक्षा-2 / अजित कुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:20, 3 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजित कुमार |संग्रह=घोंघे / अजित कुमार }} {{KKCatKavita}} <poem> …)
दीवारें उस दुर्ग की थीं
रंगीन और चिकनी
संगमरमरी ऐसी कि
निगाह डालो तो फिसले ।
मेरी प्रिया थी सुरक्षित
उसी दुर्ग के भीतर,
लहँगे में सिमटी,
घूँघट के भीतर से
टोह लेती, चौकन्नी...
खिलखिलाकर मैं हँस पड़ा-
ओहो, मेरी प्रिया घोंघी है,
गूँगी होने के अलावा !