भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिंड दान / विजय कुमार पंत

Kavita Kosh से
Abha Khetarpal (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:13, 3 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय कुमार पंत }} {{KKCatKavita}} <poem> कुनबे सूक्ष्मदर्शीय …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुनबे सूक्ष्मदर्शीय
हो गए ..
चौपाल.. चौराहों में खो गए हैं...

दाई माँ..माँ से ज़्यादा करीब है..
सबसे ज़्यादा पैसे वाला ही
गरीब है..

सम्बन्ध मुखर हो हो कर
संभोग हो गए है..
बूढ़े माँ बाप
कालजयी रोग हो गए है..

रिश्ते गौण हो रहे है..
सीमायें मिट रही हैं..
महल ध्वस्त है..
हम झोंपड़ी बचाने मैं व्यस्त हैं..

तृप्ति है कहाँ..
बेटी की इज्जत लूट रहे है
बाप और
जन्मदायिनी माँ..

बिखर रहे है..ताने बाने..
अपने ही घरों में लोग
कैसे अनजाने..

सोचता है... ब्रह्म है स्वयं
आज का इंसान..
और कल शायद खुद ही करके जायेगा
अपना पिंड दान..