भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात तो रिसती / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:10, 6 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>रात तो रिसती झरती बरसती ही रही है मेरे होने की जड़ों तक को किया ह…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात तो रिसती झरती
बरसती ही रही है
मेरे होने की जड़ों तक को
किया है नम
भीतर ही भीतर
खोखल रच दिए हैं
और अब तो दिन भी
ज़र्द अंधियारों की पोटली
खोले-रखे हैं
आगे और पीछे
मैं गोया रेत हूँ रेत
या कि फक़त मिट्टी
जबकि मैंने
होने के हर-हर जतन को
आदमकद किया है
पाताल से उलीचे स्वर दिए हैं
हुआ है यह कि
एक मैं हूँ
और कोलाहल खड़ा है
खोल कर जबड़ा गूंगी गुफा का
आंत तक निचोड़
पी ली गई है गूंज
गूंज की लौटी हुई आहट
मैं हूँ कि
कहीं गहरे धंसता हुआ
फरोले हूँ
पाताल को खरोंचे हूँ कि
गूंजे गूंजता जाए
गूंगी गुफा के
जबड़े से निकलकर कि
रेत ही नहीं हूँ मैं
फक़त मिट्टी भी नहीं हूँ
धरती की
फटी है कूख जब-जब
तभी मेरा होना हुआ
            
मार्च’ 77