भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब तो उठ जा थार / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:11, 6 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>अब तो उठ जा थार बहुत तप लिया उठ जा माना अनहोनी तो हुई कि पूछे-कहे …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब तो उठ जा थार
बहुत तप लिया उठ जा
माना अनहोनी तो हुई
कि पूछे-कहे बिना ही
जाने कौन
उतार ले गया तेरी
सागरिया नीलाई?
कैसे-कैसे
कितने थे वे हाथ
बीन ले गए
जल से अन्तरंग अंतस पर
सीपी में गर्भाते मोती?
कौन कहे वे हाथ
अंजुरी हुए
कि कुम्भ कि जेब परातें
भर-भर कर ले गए
छपक छप-छपता फेन
जाल भर सोन मछरियां?

दूर दूर से लुट-लुट आता
बिन सीढ़ी
आकाश भिगोने का
तेरा आवेग
पछाड़े खा-खा कर बिछ जाता
रेत जिसे
रसमसा लिया करती रग-रग में

वैजंती तट पर
गीत अगीतों में
आलाप भरा करता तेरा संवेग
न जाने कौन सी गया

असुरशरण दाता भी नहीं रहा तू
जिसको पी जाने
देवों ने आत्र्त अर्चना की
अगस्त्य की

तू तो था गोताखोरों का जीवट
तुझ पर झूला करती नावें
कंदील जलाए
घर की सीध
दिखाती थी मछुआरिन
कि मछुआ
लदा हंसी से लौट रहा है

तू अनथाया सागर था न
फिर कोई दूजा अगस्त्य
क्यों-कैसे
आकर बैठ गया तेरे तट
चुल्लू भर
पी गया तुझे वह

आँखों की सीमा के पार
हिलकते रहे
अछोरी थार
एक इसी दुर्दान्त घटित पर ही तू
पसर गया
ऊपर को आँखें फाड़े
एक निमिश ही
पलक झपकता तो दिख जाते
वर्तमान के हाथों
होते हुए भूत मन्वंतर
मगर एक भी रेख
नहीं घिस पाई अब तक जिनकी

भीतर से बाहर
खुद की ही
एक झलक भर की ही हर कर लेता
दिखता तुझको
तेरी ही फेरी-चकफेरी देता
मैं मेरा संसार-
हाथों को मठोठ
बूझाली़ धरती करता खेत
खेत को पांव-हाथ से लीक
एषणा बीज गया हूँ
पोरों
फटी बिवाई
तांबे का तन चुआ-चुआ कर
सींच गया हूँ धरती
तब पक-पक जन्मे
फली बाजरी काचर मोठ मतीरे

सीधी नहीं
आँख तिरछी कर
कभी-कभी तो देखा करता.....
आँखों में झलमलती
हीरों की ढिगलियां
पलकों के छाजले झटक कर फूस
छाटियां भरते
जाने कहां-कहां से
तेरे ही जायों जैसे
माणस जैसे ही बतियाते
जेबों से निकाल
खोभ ही जाते पीठ कलेजे में
पोले मुंह वाली
लोहे की परखी
केवल मुझको छोड़
सभी कुछ का बाजार
बनाया जाता जहाँ-तहाँ

देखले अब भी त्राटक तोड़
तू अपना ही आधा मुझ में
देख कि
आँखें जिससे जोड़
तापता बैठा है तू कबसे
देवता है कभी तो टूठेगा ही।
उसकी ही
अबरक सी भळ-भळ किरणें
कंगूरों पर ही झाड़
सुबह की महंदी
तेरे सन्दलिया चेहरे कों फेंचें
शूर्पनखायें होकर
और सूर्य
शून्य की खूंटी
ओंधा टंगा अलाव सरीखा
बरसाये खीरे
झुलसे सिणगारी सीवण घास
जड़ाऊ सिट्टे
न्यौते बिना
महूरत साधे उतरे
आए साल बटो ही टिड्डी-फाका
और कातरा
चाट जाय
सपनों का हरियल आंगन
कुतरे बेल उमर की

यह यह तेरा आराध्य
धूप का तवा चिपाता फिरे
कलेजे से कल झळती बूंद-बूंद को
भाप बना ले जाए
फिर यह आहट किए बिना ही
पच्छिम से लौटी रम्भाती
गो-धूली की ओट सरकता
दरका जाए एड़ी-चोटी

ठरी हड्डियों के नीचे ओटाई
आगुन से अनजान
धाबल काम्बल खोल उतरे
अनाहूत कल्मष
पोर-पोर में ठर जाए
फिर भी अनदेखा कर
यह सारा विकराल
खनकता चूड़ा
चूल्हे को सीरनी चढ़ाए
हाँडी में राँधे
मोठ कोकरू
पुरसे खदबदते धीरज का खिचड़ा
कोरों में कुनमुनता पानी

खाया पिया हुआ
तेरा यह पौरुष
घास बिछा कर
बीती सारी रख सिरहाने
सोये कल को तान
सुख की यह भी नींद
बरछी जैसी लगे हवा को
मरी ईस्के
बैरन बांज उठे
खोले उंचास हाथ
झाड़ती जाय
चूल्हे आंख दिये में
काली पीली राख
उपाड़े झूपे-टपरे
खींच उतारे
काया कात-कातकर
खेतों को पहनाए गए धोतिये
पाटती जाय
कुए ताल तलाई
ओंधे करती जाय पणीढे
हांफे हलर-फलर कर खूंट किनारों
देख अखूटी सांस प्यास की

दुख-दुखकर
सुखियाती
प्राण में साधे हुए खड़ी
पानी की साध
कि अब अब उठले
कल्पों से सोया थार
तो उठलें पड़े उनींदे धोरे
‘‘आयो-आयो’’ टणकारे जो
अभी दिगम्बर मौनी
फोग खेजड़ों बाड़-बोअटी
थार-आकड़ों का सन्नाटा
कोलाहल हो जाए
कहां छिपा बैठा है औघड़
पिये समंदर
कहे अब तो यह थार
कि गूंगा तप
केवल दुःख का विस्तार
कि ऊपरवाला नहीं
कूख का जाया पला
देवता ही देता वरदान
कहे तो सही
पीले स्याह बगूलों का कुबेर
तो बूझे भुरठ मठोठती मुट्ठी
बज-बजकर
पाताल तोड़दे
बाहर ला रखदे अगस्त्य को
चीरदे पेट
बह आए अदबदा समंदर !
            
सितम्बर’ 79