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मुझ पर तेरा होना / हरीश भादानी

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मुझ पर तेरा होना
पहली जरूरत है
मेरे होने की
और तू अक्सर ही
नहीं होता है मुझ पर,
अपने पर
रखे रहने तुझे
हुआ मैं
रेत के विंध्याचलों का
एक यायावर,
खोजे गया हूँ
आंखें फाड़ तुझको

फटी चिरती बिवाइयों से
जो झरा है
उसे ही चाट
हूंके गई है
रेत की हर हर पहाड़ी-
दे और दे पानी मुझे
आ गया होता जो सामने तू
मांग लेता
हो गया होता मैं
दूसरा वामन जो तू
मुझ में समा जाने
क्षितिज से उतर आता
बलि सा.....

तू दिखा भी है कभी
तो इतनी दूर कि
छू लेने भर को
तरसती ही रही है आंख
मैं तो फिर भी
सपना देखता रहा हूँ-
दूधियाये तू
घुल-घुल घुले
फुहार ही होकर रहे
तू मुझ पर
............
और जो याद आ जाए तुझे
वह खोज-
पत्थरों
वन-प्रान्तरों को लांघ
पंचवटी
जाकर ही ठहरी
सामने हो गई उसके
मर्यादा किनारे रख,
उठा वह
लिपटा भिंचा तो
राम ही पिघला
बह-बह गया
तर-ब-तर लौटी
भरत सी
किन्तु मैं कब से
दिशाओं से दिशाओं
क्षितिज आकाश में
पाताल में भी
तुझे खोजे हूँ
अकेला

सर पर
सूर्य को ढोता हुआ मैं
अभिशप्त
अश्वत्थामा हूँ
दागा ही नहीं मैंने
किसी का गर्भ

न सही मुझे
पर यह तो देख
आधे
निर्वसन आकाश पर
अब भी बिछी है
मेरे कबूतर ने बुनी जो
नीलई मलमल कि
दूधियाये तू
घुल-घुल घुटे
लिपटा कर मुझे
भिंचे तू
पिघले बरस जाए
तर-ब-तर करदे
मुझे तू
            
मार्च’ 82