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पटरियां पहिये/ हरीश भादानी

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पटरियां पहिये
ब्रेक गेयर भी
झटकालो
सुन्न सूज तो नहीं गए हैं
हाथ-पांव

सायरन धड़-धड़
भक भक सर्र
उड़ गए न
कानों के पर्दे

कोयलों के कुए
गुबराती चिमनियां
फाड़ों मिचमिचाओ दीदे
दिख जाए कुछ

अटका रखी है
सुबह धूप मौसम
दस माथों
हजार हाथ वाले
सिरमट के देवदारुओं ने
उचकलो झाड़दो छींका
हाथ लग जाए एक भी

चटखारे नहीं लेती
सांय सांयती सुरसा
फुट-फुट फुस-फुस
टस-टस चाटती
चोखो चीखलो
गड़ाप गड़प निगल लिए जाने

उधर देखो उधर
कांच के झुरमुट से
तक-ताक झांके है वह
ढेर हो जाओ तुम
इस-उस किनारे
या फिर बीच में ही
तभी निकल आएं
अररड़ाते हुए बुलडोजर
सपाट जाएं
रहेगा ही नहीं निशान
किसी के कुछ भी होने का
अधमिटी सी छाप पर
रख पांव
यहां तक आ भी जाए
कोई सरफिरी तलाश
तो थोड़ा सा और आगे
कर दिया जाना है उसका
ऐसा ही
होकर न होना

हैरत में हो न तुम
लौटने की खातिर ही
निकले थे घर से
और आ पहुंचे यहां

यहां.....तुम.....
आए नहीं भाई
लाए गए हो
लाए गए हो
टिच-टिच हांक तड़तड़ा कर
इस शहर.....हिश्शश.....जंगल में
            
जुलाई’ 81