फेरों बाँधी हुई सुधियों को / हरीश भादानी
फेरों बँधी हुई सुधियों को
कैसे कितना
और बिसारें
आती ही जाती
लहरों-सी
दूरी से सलवटें संजोती
तट की फटी दरारों में ये
फेनाया-सा
तन-मन खोती
अनचाहा यह मौन निमन्त्रण
कौन बहानों से इन्कारें
फेरों बँधी हुई सुधियों को
कैसे-कितना
और बिसारें
रतनारे नयनों को मूँदे
पसर-पसर
जाती रातों में
सिहर-सिहर
टेरें भरती हैं
खोजी सपनों की बातों में
साँसों पर कामरिया का रंग
किन हाथों से पोंछ उतारें
फेरों बँधी हुई सुधियों को
कैसे, कितना
और बिसारें
परदेशी जैसी
अधसोई
अलसा-अलसा कर अकुलाती
सूरज देख
लाजवंती-सी
उठ जाती
परभाती गाती
धूप चदरिया मिली ओढ़ने
फिर क्यों तन से इसे उतारें
फेरों बंधी हुई सुधियों को
कैसे-कितना
और बिसारें