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मैंने नहीं कल ने बुलाया है !/ हरीश भादानी
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मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
ख़ामोशियों की छतें,
आबनूसी किवाड़े घरों पर,
आदमी-आदमी में दीवार है,
तुम्हें छैनियाँ लेकर बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
सीटियों से
साँस भर कर भागते
बाजार-मीलों दफ़्तरों को
रात के मुर्दे,
देखती ठण्डी पुतलियाँ-
आदमी अजनबी
आदमी के लिए
तुम्हें मन खोल कर मिलने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
बल्ब की रोषनी
शेड में बंद है,
सिर्फ़ परछाई उतरती है
बड़े फुटपाथ पर,
ज़िन्दगी की ज़िल्द के
ऐसे सफ़े तो पढ़ लिए
तुम्हें अगला सफ़ा पढ़ने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !