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सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े / हरीश भादानी
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सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
बजती हुई सुई !
सीलन और धुएँ के खेतों
दिन भर रुई चुनें
सूजी हुई आँख के सपने
रातों सूत बुनें
आँगन के उठने से पहले
रचदे एक कमीज रसोई,
एक तलाश पहन कर भागे
किरणें छुई-मुई.....
सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
बजती हुई सुई !
धरती भर कर
चढ़े तगारी
बाँस-बाँस आकाश,
फरनस को अगियाया रखती
साँसें दे-दे घास
सूरज की साखी में बंटते
अंगुली जितने आज और कल,
बोले कोई उम्र अगर तो
तीबे नई सुई
बजती हुई सुई
सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
बजती हुई सुई !