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केवल घर, घरवाला खोजें.... / हरीश भादानी

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केवल घर, घरवाला खोजें.....
चलने का पहला दिन,
और आज का यह दिन,
और नहीं कुछ
    केवल घर, घरवाला खोजें.....


इसी गरज की मार कि जमादार को
पहली चौकी दर्ज़ कराई
नाम, वल्दियत, उम्र कि जंगल-
है तो शहरीला ही,
    खुली हुई ड्योढ़ी में आंगन,
    आँगन के पसवाड़े चूल्हा,
        चकले-चुड़ले की संगत पर
        कांसी की थाली पर बजती
        परभाती-संझवाती पर तो रीझेंगे ही, पर-
चलने का पहला दिन.....


सिले होठ सी
लगी नाम की
एक-एक तख्ती के पीछे
    केवल जड़े किवाड़े देखें-
चलने का पहला दिन.....


दीवारों ही दीवारों के बीहड़ में भी
रस्ते धोती धूप कहीं तो दिख जाएगी,
सूरज के आगे चंदोवे ताने
चौक-गली में रचते ही होंगे कारीगर, पर-
चलने का पहला दिन.....


धोये है आकाश चिमनियाँ
खड़ा आदमी पंच करे है-
अपना होना,
    लोहे के दड़बों में
    केवल अँधी होड़ सरीखी
    भाग रही सड़कों को देखें-
चलने का पहला दिन.....


गुमसुम के पर्वत के नीचे दब-चिंथ जीती
बतियाने की केवल
एक बळत सुन लेने
    इतने अपनों बीच परायी
    एक अकेली
    दुख-दुख कर सूजी आँखों में
    सारथ हो चलने की
    एक कौंध पा लेने-
चलने का पहला दिन.....


दिनों-दुखों की
जोड़ भूल कर,
दूरी को आँजे आँखों में
एक बड़ी दुनिया हो गए शहर में
    और नहीं कुछ
    अपनापा केवल अपनापा खोजें-


चलने का पहला दिन,
और आज का यह दिन
और नहीं कुछ
    केवल घर, घरवाला खोजें.....