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जो पहले अपना घर फूंके,/ हरीश भादानी

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जो पहले अपना घर फूंके,
फिर धर-मजलां चलना चाहे
    उसको जनपथ की मनुहारें !


    जनपथ ऐसा ऊबड़-खाबड़
    बँधे न फुटपाथों की हद में


    छाया भी लेवे तो केवल
    इस नागी, नीली छतरी की


    इसकी सीध न कटे कभी भी
    दोराहे-चौराह तिराहे


    दूरी तो बस इतनी भर ही
    उतर मिले आकाश धरा से


    साखी सूरज टिमटिम रातें
    घट-बढ़-घटते चंदरमाजी


    पग-पग पर बांवळिये-बूझे
    फिर भी तन से, मन से चाले


    उन पाँवों सूखी माटी पर
    रच जाती गीली पगडण्डी
    देखनहारे उसे निहारें
जो पहले अपना घर फूंके,
फिर धर-मजलां चलना चाहे
        उसको जनपथ की मनुहारें !


    इस चौगान चलावो रतना
    मंडती गई राम की गाथा


    एक गवाले के कंठो से
    इस पथ ही गूँजी थी गीता


    जरा, मरण के दुःख देखे तो
    साँस-साँस से करुणा बाँटी


    हिंसा की सुरसा के आगे
    खड़ा हो गया एक दिगम्बर


    पाथर पूजे हरी मिले तो
    पर्वत पूजूँ कहदे कोई


    धर्मग्रन्थ फैंको समन्दर में
    पहले मनु में मनु को देखो


    जे केऊ डाक सुनेना तेरी
    कवि गुरु बोले चलो एकला


    यूँ चल देने वाले ही तो
    पड़ती छाई झाड़-झूड़ते
        एक रंग की राह उघाड़ें


जो पहले अपना घर फूंके
फिर धर-मजलां चलना चाहे
        उसको जनपथ की मनुहारें !