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ऐसी एक चलन देखी है ! / हरीश भादानी

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ऐसी एक चलन देखी है !
    अपना होना
    बिसरी-बिसरी
    इस-इसको, उस-उसको निरखे
    इसकी खातिर
    उसकी खातिर
    अपना होना बीजे जाए

    सींचे हेत
    पसीना सींचे
    कभी न सोये पहरेदारिन
    एक हाथ
    सबसे ऊपर हो
    सूरज के नीचे छतरी सी


    हवा बिफरती
    आए जब भी
    केवल आँचल भर हो जाए
    लीलटांस
    जैसे सपनों को
    अपनी आँखों रहे निथारे


ऐसी एक लगन देखी है !
ऐसी एक चलन देखी है !


    यूँ बज-बजती
    रहे जहाँ वह,
    कहे रसोई यहाँ और बज
    काँसी बजती
    राग भैरवी
    सुनते ही तो भागी आए
    हाथ हिले
    समिधायें जुड़लें
    हड़-हड़ हांसन लागे चूल्हा
    रसमस-रसमस
    आटा-पानी
    थप-थप थपे.....थपे चंदोवे


    सिक-सिक उतरें
    गट-गट, गप-गप
    आखर भागें धाप रागते
    खाली हांडी
    और कठौती
    छू-छू कर होना पूरे जो


ऐसी एक छुअन देखी है !
ऐसी एक चलन देखी है !