भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

19/ हरीश भादानी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:49, 7 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>जहर पिला देना चाहता हूँ रातों में बाज़ार लगाती इन यादों को ! ये य…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जहर पिला देना चाहता हूँ
रातों में बाज़ार लगाती
इन यादों को !
ये यादें-
भोले चरवाहे सपनों पर
जादू-सी चढ़कर बोला करती हैं,
मेरी सृजन चढ़ी हुई
आँखों के आगे
बिना ताल स्वर के
नाचा करती हैं,
पोर-पोर में चुभ जाती है
इतना दर्द दिये जाती हैं,
आसमान गदला जाता है
जिसको धोते-धोते
मेरी सांस-सांस
थकने लगती है,
सौगंध दिलाता हूँ सपनों को
मैं अपनी घरवाली
सती-धूप की
वे केवल मेरे ही होकर
जीना सीखें !
लेकिन
पसरी हुई रात की
रसिया यादें
हर सौगंध तुड़ा देती हैं;
दुखिया मन के जाये सपने
सूरज से अपनाया गाँठे,
छोड़ें नहीं पठारी धरती,
और विरासत-
चूल्हा-चिमनी
पेट बजाती हुई भीड़ को
देखें-भालें,
हाथ उठायें,
नसें तनायें,
ऐसी साधें रहें न आधी
इसीलिये
मैं ज़हर पिला देना चाहता हूँ
रातों में बाज़ार लगाती
इन यादों को !