भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
29/ हरीश भादानी
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:53, 7 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>हम सबके अस्तित्व का आधार हो धरती हमारी, हम चलें अपनी हवाओं को पी…)
हम सबके
अस्तित्व का आधार हो
धरती हमारी,
हम चलें
अपनी हवाओं को पीते हुए,
हम कहें, बोलें-
हमारे ही आकाश में बनते
जीवाणुओं का कथ्य,
यह पहली शर्त हैं-
अभी से अनागत जिन्दगी तक की;
हम में से
किसी ने भूल से
या स्वयं के बौनेपन से खीज़
जीने के लिये
नये के नाम पर अचाहा ले लिया हो कुछ
पड़ोसी दोस्तों से,
जो भी उनके पास था
सीलन भरा, सिकुड़ा हुआ,
या हममें से किसी ने
सीध चलने की वकालत की
या कठघरे में बैठ
पुजने की हिमाकत की,
पर आज के हम सब
ऐसी संज्ञाओं,
क्रियाओं को
जीवन नहीं कहते, जीना नहीं कहते,
हम तरासे जा रहे हैं-
नई सड़कें !
नये सम्बन्ध !
आंकते ही जा रहें हैं हम
नई सम्भावनाएँ!