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तितलियाँ / शाहिद अख़्तर
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रात सोने के बाद
तकिए के नीचे से सरकती हुई
आती हैं यादों की तितलियाँ
तितलियाँ पंख फड़फड़ाती हैं
कभी छुआ है तुमने इन तितलियों को
उनके ख़ूबसूरत पंखों को
मीठा-मीठा से लमस हैं उनमें
एक सुलगता-सा एहसास
जो गीली कर जाते हैं मेरी आँखें
तितलियाँ पंख फड़फड़ाती हैं
तितलियाँ उड़ जाती हैं
तितलियां वक़्त की तरह हैं
यादें छोड़ जाती हैं
ख़ुद याद बन जाती हैं
तितलियाँ बचपन की तरह हैं
मासूम खिलखिलाती
हमें अपनी मासुमियत की याद दिलाती हैं
जिसे हम खो बैठे हैं जाने अनजाने
चंद रोटियों के खातिर
जीवन के महासमर में...
हर रात नींद की आगोश में
जीवन के टूटते बिखरते सपनों के बीच
मैं खोजता हूँ
अपने तकिये के नीचे
कुछ पल बचपन के, कुछ मासूम तितलियाँ...