भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कलम की दादागिरी / अलका सर्वत मिश्रा

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:27, 15 अगस्त 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत दिनों के बाद
अब उठने लगी है कलम
देखिए क्या गुल खिलाती है ?

इसके मन में क्या है
अब ये क्या लिखने वाली है,
एक क्षण पहले तक भी
नहीं बताती है !

यह नए शब्द गढ़ती है
नए अर्थ ले आती है
मुश्किलों के वक्त मुझे
विदुर नीति समझाती है.

कहती है -
कण-कण में चेतना है
'जड़' केवल तेरी बुद्धि है
जो नहीं समझती है
प्रकृति का इशारा,
हवा-पानी-मिट्टी की,
 कीमत नहीं जानती है
बेहद शक्तिशाली हैं ये
हारेंगे नहीं तेरे किसी आविष्कार से,
एक ही क्षण लगेगा
उस आविष्कार को मिट्टी होते.

कहती है-
सदियों से लिखती आई हूँ
शिलापट मैं
लाखों करोड़ों इबारतें
सब कुछ ख़त्म होते गये
सिर्फ ये लेख ही बचे हैं.

जाने कितने जीव-जंतु
जाने कैसे- कैसे पेड़-पौधे
किले, इमारतें, महल
सब कुछ मिल जाता है
इसी प्रकृति में
सबसे शक्तिशाली है ये

तुम इसकी रक्षा करो
ये तुम्हें संरक्षित करेगी
पहले भी लिख चुकी हूँ मैं
धर्मो रक्षति रक्षतः
क्यों नहीं आता समझ में, तुम्हें
पढ़ डाली अलमारी भर-भर किताबें
अनगिनत रिसाले
पर तेरी जड़ बुद्धि में
नहीं घुसा अभी तक
कि-
कुदरत उसी की सुरक्षा करती है
जो कुदरत की रक्षा करता है।