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मुफ़लिसी थी तो उसमें भी एक शान थी (प्रेमचन्द) / नज़ीर बनारसी
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प्रेमचन्द
मुफ़लिसी थी तो उसमें भी एक शान थी
कुछ न था, कुछ न होने पे भी आन थी
चोट खाती गई, चोट करती गई
ज़िन्दगी किस क़दर मर्द मैदान थी
जो बज़ाहिर शिकस्त-सा इक साज़ था
वह करोड़ों दुखे-दिल की आवाज़ था
राह में गिरते-पड़ते सँभलते हुए
साम्राजी से तेवर बदलते हुए
आ गए ज़िन्दगी के नए मोड़ पर
मौत के रास्ते से टहलते हुए
बनके बादल उठे, देश पर छा गए
प्रेम रस, सूखे खेतों पे बरसा गए
अब वो जनता की सम्पत हैं, धनपत नहीं
सिर्फ़ दो-चार के घर की दौलत नहीं
<ref>माशूक</ref>
शब्दार्थ
<references/>