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शेष / गंगा प्रसाद विमल
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शेष
कई बार लगता है
मैं ही रह गया हूँ अबीता पृष्ठ
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जम गई है धूल।
धूल के बिखरे कणों में
रह गए हैं नाम
कई बार लगता है
एक मैं ही रह गया हूँ
अपरिचित नाम।
इतने परिचय हैं
और इतने सम्बंध
इतनी आंखें हैं
और इतना फैलाव
पर बार-बार लगता है
मैं ही रह गया हुं
सिकुडा हुआ दिन।
बेहिसाब चेहरे हैं
बेहिसाब धंधे
और उतने ही देखने वाले दृष्टि के अंधे
जिन्होंने नहीं देखा है
देखते हुए
उस शेष को
उस एकांत शेष को
जो मुझे पहचानता है
पहचानते हुए छोड देता है
समय के अंतरालों में...