नूरजहाँ / गुरुभक्तसिंह ‘भक्त’ / पृष्ठ १
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सुरभित पुष्पों की रज औ, लेकर मोती का पानी।
हिम बालाओं के कर से, जो गई प्रेम से सानी॥
पृथिवी की चाक चलाकर, दिनकर ने मूर्ति बनाई।
छवि फिर बसंत की लेकर, उसमें डाली सुघराई॥
चरखे नक्षत्रों के चल, थे सूत कातते जाते।
जिनको लपेट रवि कर से, थे ताना-सा फैलाते॥
सुंदर विहंग आ जाकर, जिसमें बुनते थे बाना।
फिर सांध्य जलद भर जाता, तितली का रंग सुहाना॥
ऐसे अनुपम पट में थी, शोभित वह विश्व निकाई।
जिसकी छवि निखर-निखरकर मोहित थी विधि निपुणाई॥
कुसुम-कलश ले ले लतिकाएँ, श्रम-सीकर से सनी हुई।
किसलय-घूँघट में मुग्धा-सी, दुलहिन मानों बनी हुई॥
राह किसी की निरख रही है, स्वागत में तैयार खडी।
जमुहाई ले लख लेती हैं, झुक-झुक तरु की धूपघडी॥
सरिता के अंचल में बालू, कण-कण पर मणि दीपक बाल।
संध्या सोना लुटा-लुटाकर, लाई है माणिक का थाल॥
थिरक-थिरककर नाच लहरियाँ हिलमिल करती हैं कलगान।
खग बालाएँ मंजु अटा से, छेड रही हैं अपनी तान॥
पियरी पहन खडी है सरसों, आम खडे हैं लेकर मौर।
वेद मंत्र से पढते फिरते, हैं फिर-फिर भौरों के झौंर॥
स्वर्ण फूल कानों में धारे, धानी 'तिनपतिया बाला।
दूल्हा को पहिनाने को है, लिए 'शंखपुष्पी माला॥
कनक पत्र के विमल पाँवडे, बिछा किया स्वागत छवि ने।
प्रकृति वधू के संग पुरुष को, बैठाया सादर रवि ने॥
ले सिंदूर निशामुख आया, मधुकर ने वर मंत्र पढा।
जीवन फल पाया रसाल ने, 'माधव के सिर मौर चढा॥
ले वर वधू तितलियाँ सुंदर, करा रही हैं भावरियाँ।
उस प्रमोद-सागर में झिंझरी, खेल रही हैं दृग तरियाँ॥
सरित-माँग में संध्या में, सिंदूर विहँस वर ने डाला।
आ क्षणदा ने न्यौछावर हो पहिना दी तारक माला॥