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हरिजन गाथा / नागार्जुन

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रचनाकार: नागार्जुन

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

(एक)


ऎसा तो कभी नहीं हुआ था !

महसूस करने लगीं वे

एक अनोखी बेचैनी

एक अपूर्व आकुलता

उनकी गर्भकुक्षियों के अन्दर

बार-बार उठने लगी टीसें

लगाने लगे दौड़ उनके भ्रूण

अंदर ही अंदर

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था


ऎसा तो कभी नहीं हुआ था कि

हरिजन-माताएं अपने भ्रूणों के जनकों को

खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...


ऎसा तो कभी नहीं हुआ था कि

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं--

तेरह के तेरह अभागे--

अकिंचन मनुपुत्र

ज़िन्दा झोंक दिये गये हों

प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में

साधन सम्पन्न ऊंची जातियों वाले

सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...


ऎसा तो कभी नहीं हुआ था कि

महज दस मील दूर पड़ता हो थाना

और दारोगा जी तक बार-बार

ख़बरें पहुंचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की


और, निरन्तर कई दिनों तक

चलती रही हों तैयारियां सरेआम

(किरासिन के कनस्तर, मोटे-मोटे लक्क्ड़,

उपलों के ढेर, सूखी घास-फूस के पूले

जुटाये गए हों उल्लासपूर्वक)

और एक विराट चिताकुंड के लिए

खोदा गया हो गड्ढा हंस-हंस कर

और ऊंची जातियों वाली वो समूची आबादी

आ गई हो होली वाले 'सुपर मौज' मूड में

और, इस तरह ज़िन्दा झोंक दिए गए हों


तेरह के तेरह अभागे मनुपुत्र

सौ-सौ भाग्यवान मनुपुत्रों द्वारा

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...


(दो)


चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग

ऎसा नवजातक

न तो देखा था, न सुना ही था आज तक !

पैदा हुआ है दस रोज़ पहले अपनी बिरादरी में

क्या करेगा भला आगे चलकर ?

रामजी के आसरे जी गया अगर

कौन सी माटी गोड़ेगा ?

कौन सा ढेला फोड़ेगा ?

मग्गह का यह बदनाम इलाका

जाने कैसा सलूक करेगा इस बालक से

पैदा हुआ बेचारा--

भूमिहीन बंधुआ मज़दूरों के घर में

जीवन गुजारेगा हैवान की तरह

भटकेगा जहां-तहां बनमानुस-जैसा

अधपेटा रहेगा अधनंगा डोलेगा

तोतला होगा कि साफ़-साफ़ बोलेगा

जाने क्या करेगा

बहादुर होगा कि बेमौत मरेगा...

फ़िक्र की तलैया में खाने लगे गोते

वयस्क बुजुर्ग दोनों, एक ही बिरादरी के हरिजन

सोचने लगे बार-बार...

कैसे तो अनोखे हैं अभागे के हाथ-पैर

राम जी ही करेंगे इसकी खैर

हम कैसे जानेंगे, हम ठहरे हैवान

देखो तो कैसा मुलुर-मुलुर देख रहा शैतान !

सोचते रहे दोनों बार-बार...


हाल ही में घटित हुआ था वो विराट दुष्कांड...

झोंक दिए गए थे तेरह निरपराध हरिजन

सुसज्जित चिता में...


यह पैशाचिक नरमेध

पैदा कर गया है दहशत जन-जन के मन में

इन बूढ़ों की तो नींद ही उड़ गई है तब से !

बाकी नहीं बचे हैं पलकों के निशान

दिखते हैं दृगों के कोर ही कोर

देती है जब-तब पहरा पपोटों पर

सील-मुहर सूखी कीचड़ की


उनमें से एक बोला दूसरे से

बच्चे की हथेलियों के निशान

दिखलायेंगे गुरुजी से

वो ज़रूर कुछ न कु़छ बतलायेंगे

इसकी किस्मत के बारे में


देखो तो ससुरे के कान हैं कैसे लम्बे

आंखें हैं छोटी पर कितनी तेज़ हैं

कैसी तेज़ रोशनी फूट रही है इन से !

सिर हिलाकर और स्वर खींच कर

बुद्धू ने कहा--

हां जी खदेरन, गुरु जी ही देखेंगे इसको

बताएंगे वही इस कलुए की किस्मत के बारे में

चलो, चलें, बुला लावें गुरु महाराज को...


पास खड़ी थी दस साला छोकरी

दद्दू के हाथों से ले लिया शिशु को

संभल कर चली गई झोंपड़ी के अन्दर


अगले नहीं, उससे अगले रोज़

पधारे गुरु महाराज

रैदासी कुटिया के अधेड़ संत गरीबदास

बकरी वाली गंगा-जमनी दाढ़ी थी

लटक रहा था गले से

अंगूठानुमा ज़रा-सा टुकड़ा तुलसी काठ का

कद था नाटा, सूरत थी सांवली

कपार पर, बाईं तरफ घोड़े के खुर का

निशान था

चेहरा था गोल-मटोल, आंखें थीं घुच्ची

बदन कठमस्त था...

ऎसे आप अधेड़ संत गरीबदास पधारे

चमर टोली में...


'अरे भगाओ इस बालक को

होगा यह भारी उत्पाती

जुलुम मिटाएंगे धरती से

इसके साथी और संघाती


'यह उन सबका लीडर होगा

नाम छ्पेगा अख़बारों में

बड़े-बड़े मिलने आएंगे

लद-लद कर मोटर-कारों में


'खान खोदने वाले सौ-सौ

मज़दूरों के बीच पलेगा

युग की आंचों में फ़ौलादी

सांचे-सा यह वहीं ढलेगा


'इसे भेज दो झरिया-फरिया

मां भी शिशु के साथ रहेगी

बतला देना, अपना असली

नाम-पता कुछ नहीं कहेगी


'आज भगाओ, अभी भगाओ

तुम लोगों को मोह न घेरे

होशियार, इस शिशु के पीछे

लगा रहे हैं गीदड़ फेरे


'बड़े-बड़े इन भूमिधरों को

यदि इसका कुछ पता चल गया

दीन-हीन छोटे लोगों को

समझो फिर दुर्भाग्य छ्ल गया


'जनबल-धनबल सभी जुटेगा

हथियारों की कमी न होगी

लेकिन अपने लेखे इसको

हर्ष न होगा, गमी न होगी


' सब के दुख में दुखी रहेगा

सबके सुख में सुख मानेगा

समझ-बूझ कर ही समता का

असली मुद्दा पहचानेगा


' अरे देखना इसके डर से

थर-थर कांपेंगे हत्यारे

चोर-उचक्के- गुंडे-डाकू

सभी फिरेंगे मारे-मारे


'इसकी अपनी पार्टी होगी

इसका अपना ही दल होगा

अजी देखना, इसके लेखे

जंगल में ही मंगल होगा


'श्याम सलोना यह अछूत शिशु

हम सब का उद्धार करेगा

आज यह सम्पूर्ण क्रान्ति का

बेड़ा सचमुच पार करेगा


'हिंसा और अहिंसा दोनों

बहनें इसको प्यार करेंगी

इसके आगे आपस में वे

कभी नहीं तकरार करेंगी...'


इतना कहकर उस बाबा ने

दस-दस के छह नोट निकाले

बस, फिर उसके होंठों पर थे

अपनी उंगलियों के ताले


फिर तो उस बाबा की आंखें

बार-बार गीली हो आईं

साफ़ सिलेटी हृदय-गगन में

जाने कैसी सुधियां छाईं


नव शिशु का सिर सूंघ रहा था

विह्वल होकर बार-बार वो

सांस खींचता था रह-रह कर

गुमसुम-सा था लगातार वो


पांच महीने होने आए

हत्याकांड मचा था कैसा !

प्रबल वर्ग ने निम्न वर्ग पर

पहले नहीं किया था ऐसा !


देख रहा था नवजातक के

दाएं कर की नरम हथेली

सोच रहा था-- इस गरीब ने

सूक्ष्म रूप में विपदा झेली


आड़ी-तिरछी रेखाओं में

हथियारों के ही निशान हैं

खुखरी है, बम है, असि भी है

गंडासा-भाला प्रधान हैं


दिल ने कहा-- दलित माओं के

सब बच्चे अब बागी होंगे

अग्निपुत्र होंगे वे अन्तिम

विप्लव में सहभागी होंगे


दिल ने कहा--अरे यह बच्चा

सचमुच अवतारी वराह है

इसकी भावी लीलाओं की

सारी धरती चरागाह है


दिल ने कहा-- अरे हम तो बस

पिटते आए, रोते आए !

बकरी के खुर जितना पानी

उसमें सौ-सौ गोते खाए !


दिल ने कहा-- अरे यह बालक

निम्न वर्ग का नायक होगा

नई ऋचाओं का निर्माता

नए वेद का गायक होगा


होंगे इसके सौ सहयोद्धा

लाख-लाख जन अनुचर होंगे

होगा कर्म-वचन का पक्का

फ़ोटो इसके घर-घर होंगे


दिल ने कहा-- अरे इस शिशु को

दुनिया भर में कीर्ति मिलेगी

इस कलुए की तदबीरों से

शोषण की बुनियाद हिलेगी


दिल ने कहा-- अभी जो भी शिशु

इस बस्ती में पैदा होंगे

सब के सब सूरमा बनेंगे

सब के सब ही शैदा होंगे


दस दिन वाले श्याम सलोने

शिशु मुख की यह छ्टा निराली

दिल ने कहा--भला क्या देखें

नज़रें गीली पलकों वाली

थाम लिए विह्वल बाबा ने

अभिनव लघु मानव के मृदु पग

पाकर इनके परस जादुई

भूमि अकंटक होगी लगभग

बिजली की फुर्ती से बाबा

उठा वहां से, बाहर आया

वह था मानो पीछे-पीछे

आगे थी भास्वर शिशु-छाया


लौटा नहीं कुटी में बाबा

नदी किनारे निकल गया था

लेकिन इन दोनों को तो अब

लगता सब कुछ नया-नया था


(तीन)


'सुनते हो' बोला खदेरन

बुद्धू भाई देर नहीं करनी है इसमें

चलो, कहीं बच्चे को रख आवें...

बतला गए हैं अभी-अभी

गुरु महाराज,

बच्चे को मां-सहित हटा देना है कहीं

फौरन बुद्धू भाई !'...

बुद्धू ने अपना माथा हिलाया

खदेरन की बात पर

एक नहीं, तीन बार !

बोला मगर एक शब्द नहीं

व्याप रही थी गम्भीरता चेहरे पर

था भी तो वही उम्र में बड़ा

(सत्तर से कम का तो भला क्या रहा होगा !)

'तो चलो !

उठो फौरन उठो !

शाम की गाड़ी से निकल चलेंगे

मालूम नहीं होगा किसी को...

लौटने में तीन-चार रोज़ तो लग ही जाएंगे...

'बुद्धू भाई तुम तो अपने घर जाओ

खाओ,पियो, आराम कर लो

रात में गाड़ी के अन्दर जागना ही तो पड़ेगा...

रास्ते के लिए थोड़ा चना-चबेना जुटा लेना

मैं इत्ते में करता हूं तैयार

समझा-बुझा कर

सुखिया और उसकी सास को...'


बुद्धू ने पूछा, धरती टेक कर

उठते-उठते--

'झरिया,गिरिडिह, बोकारो

कहां रखोगे छोकरे को ?

वहीं न ? जहां अपनी बिरादरी के

कुली-मज़ूर होंगे सौ-पचास ?

चार-छै महीने बाद ही

कोई काम पकड़ लेगी सुखिया भी...'

और, फिर अपने आप से

धीमी आवाज़ में कहने लगा बुद्धू

छोकरे की बदनसीबी तो देखो

मां के पेट में था तभी इसका बाप भी

झोंक दिया गया उसी आग में...

बेचारी सुखिया जैसे-तैसे पाल ही लेगी इसको

मैं तो इसे साल-साल देख आया करूंगा

जब तक है चलने-फिरने की ताकत चोले में...

तो क्या आगे भी इस कलु॒ए के लिए

भेजते रहेंगे खर्ची गुरु महाराज ?...


बढ़ आया बुद्धू अपने छ्प्पर की तरफ़

नाचते रहे लेकिन माथे के अन्दर

गुरु महाराज के मुंह से निकले हुए

हथियारों के नाम और आकार-प्रकार

खुखरी, भाला, गंडासा, बम तलवार...

तलवार, बम, गंडासा, भाला, खुखरी...


(१९७७ में रचित,'खिचड़ी विप्लव देखा हमने' नामक संग्रह से )