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मेरे भीतर एक नदी / ओम पुरोहित ‘कागद’

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एक नदी
रजस्वला
जो मेरे
बहुत गहरे
बहती है
कहती है
मैं
रचना चाहती हूं
एक हरियल संसार
लगातार
लेकिन
मेरे मार्ग में
बहुत अवरोध हैं
तू अबोध है
नही पहचान पा रहा
उनका और मेरा
तुम में होना
यह रोना
मेरा और तुम्हारा
लगातार
रचा जा रहा है
और
एक होना
होने को तरस रहा है।

मैं
बस
उस नदी का स्वर
कनपटियों पर महसूसता हूं
और स्वयं को
एक भ्रूणहत्या का
दोषी मानता हूं।

मेरे भीतर
आज भी
नदी मे ज्वार है।