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धूप क्यों छेड़ती है (कविता) / ओम पुरोहित ‘कागद’
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उन
कई-कई
मंजिलों ऊंची
कोठियों में सोए
अमीरों को छोड़
धरातल पर
गढ्ढों में सोए मुझ को
धूप क्यों छेड़ती है ?
गहरी नींद सोने से पहले
क्यों जगा देती है ?
भूख !
उन अमीरों के
भर पेट खा कर
मखमल पर सोए
साहबजादों के पेट को छोड़ कर
मेरे नत्थू के पेट में आ कर
क्यों सो जाती है ?
क्यों कुदाल,फावड़ा और गेंती
मेरे अवयस्क नत्थू के हाथों में
आ थम जाते हैं ?
उनकी गोरी चमड़ी के
आवरण वाली हथेलियां
पोरों में सिगरेट व जाम
क्यों थाम लेती है ?
क्यों उनकी मोटी तिजोरियों में
घर बैठे ही
धन संग्रहित हो जाता है ?
मेरी फटी सी धोती की
छोटी सी अंटी
खाली क्यों रह जाती ?
क्या धूप
छप्पर फाड़ कर ‘लेना’
और
फाटक बन्द कर ‘देना’ चाहती है ?