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रेत का जाया मैं / ओम पुरोहित ‘कागद’

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धोरों पर जब भी पसरा हूं
सूरज ने सताया,
आंधी ने उड़ाया है।
जब भी कभी मुझे,
बूंद भर पानी मिला
मेरा रोम-रोम फाड़ कर
उस बूंद को तलाश है गया।
शान्त जमीन पर सोये
मेरे ऊष्ण उदर में,
एक से अनेक की चाहनी के साथ
बीज डाल
जुआ खेला गया।
मेरा पेट फाड़
वे बीज अंकुरित हुए,
उनके पेट की क्षुधा मिटाने।
पानी डाला,
खाद डाली,
रक्षा की
लेकिन जब पौधा फल लाया ;
पानी नहीं,
खाद नहीं,
रक्षा नहीं !

एक बार फिर
मैं उस पौधे के साथ
मैदान में आ गया,
मसला गया,
कूटा-पीटा गया,
और पुन:
पु्रवा में
उड़ा दिया गया।

जब भी
उनकी आकांक्षाएं,
मेरे उदर की उष्णता में
नेस्तनाबूद हो गई तो-
मुझे थार की संज्ञा दे
नकार दिया गया।

जब भी कभी मैने
किसी के सीने से लग कर
हंसना
रोना चाहा
फटे कपड़े की तरह,
झटक दिया गया।

जब-जब भी मैं
परहितार्थ पसरा हूं
लोगो ने
जांचा,
परखा
और
स्वार्थसिद्धि हेतु दण्डवत समझ
दुत्कार दिया

न मेरा-
स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकारा गया
और न सह-अस्तित्व।
न मुझे
‘हम’ बनने दिया
और न ‘मै’ रहने दिया
रेत का जाया रेत था,
बस,
रेत ही रहने दिया ।