Last modified on 31 अगस्त 2010, at 12:41

अस्तित्व का एहसास / ओम पुरोहित ‘कागद’

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:41, 31 अगस्त 2010 का अवतरण

तुम
खींच कर मार जाते हो
आईना-ए-दिल पर पत्थर
और पलट कर
उसके टूटने की
आवाज तक नहीं सुनते।
क्यों कि, तुम्हें
मेरी नपुंसकता का
अहसास हो गया हैं।

तुम
भरे बाज़ार,
मरी इज्जत के बदले
अपने लिए
इज्जत खरीद लेते हो
और मैं
कुएं से निकली डोलची की तरह
छ्पाक से खाली हो
दूसरी छ्लांग के लिए
हर पल तैयार रहता हूं,
क्यों कि मुझे
मेरि नपुंसकता का अह्सास हो गया है।


एक अबला की तरह
मेरी कविता
मेरे वास्ते
दो जून रोटी के लिए
तुम्हारे आगे पसर जाती है
और तुम उसे
पृष्‍ठ-दर -पृष्‍ठ
कुतरते जाते हो,
ऎसी फ़ंसाते हो
एक कॉलम के चौथे हिस्से में
कि, वह तुम्हारी हो कर रह जाती है।
उसे भी
मेरी होने का अह्सास नहीं होता
क्यों कि,उसे भी-
मेरी नपुंसकता का अह्सास हो गया है।