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रह गई माँ क्षीण क्षिप्रा-सी / नईम

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रह गई माँ क्षीण शिप्रा-सी,
मगर अब भी पिता हैं नर्मदा के घाट।

याद आती है मुझे शीतल गझिन अमराई,
केरियाँ खाती बहिन, शाखें बटोरे भाई;
          सिर झुकाए बालियों-सी माँ-
          मगर तटबंध-से ऊँचे पिता के ठाट।

आस्था जो नहा-धोकर ईद पर पढ़ती नमाज,
माटियाँ खाते हुए, जो बीनती रहती अनाज;
          हिंदवी-सी ये प्रकृति सी माँ-
          मगर अब भी पिता गोया पछाँही जाट।

गंध सौंधी बाटियों की, दूध की हल्की उजास,
पुरजनों से परिजनों तक संधि याकि समास;
          पिता सायेदार वह वटवृक्ष-
          नीचे बिछी माँ
          जैसे निखरनी खाट।