भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कांच नहीं मिटटी हूँ / मंजुला सक्सेना

Kavita Kosh से
Firstbot (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:15, 7 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मंजुला सक्सेना |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> कांच नहीं मि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कांच नहीं मिटटी हूँ
टूटी हूँ फूटी हूँ
आँधियों में उड़ाती हूँ
गह्वरों में जमती हूँ
मिटती ही रहती हूँ
व्यर्थ नहीं जीती हूँ .
पैरों से रौंद लो ,
खेतों में जोत दो ,
भट्टियों में झोंक दो ,
नदियों में फ़ेंक दो .
फूल पर खिलाऊँगी
फसलें फिर उगाउंगी,
घर नए बसाउंगी.
ठोस बन के उभरूंगी
नए शहर बसाउंगी .
कांच नहीं मिटटी हूँ
हार नहीं पाउंगी

लेखन काल: १९८४