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हक़ / नरेश अग्रवाल

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प्रकृति की सुंदरता पर किसी का हक़ नहीं था
वो आज़ाद थी, इसलिए सुंदर थी
एक ख़ूबसूरत चट्टान को तोडक़र
दो नहीं बनाया जा सकता
ना ही एक बकरी के जिस्म को दो ।

इस धूप को कोई नहीं रोक सकता था
धीरे-धीरे यह छा जाती थी चारों तरफ़
इसलिए इसके भी दो हिस्से नहीं हो सकते
और जो हिस्से सुंदर नहीं थे
वे लड़ाईयों के लिए पहले ही छोड़ दिए गए थे ।