न्याय का व्याकरण / गोबिन्द प्रसाद
सड़क के बीचों-बीच
सुबह होने तक
क़ानून की ज़ुबान बोलने वाले घेर लेंगे
और एक एक कर
थोड़ी देर बाद सभी
अपने घर-दफ़्तरों या फिर
सिनेमाघरों के लिए (यूँ) चले जाएंगे
गोया मजमा ख़त्म हो गया हो!
क्या फ़र्क़ पड़ता है
सुबह की दुनिया को
कल रात हो गए हादसे से
क़ानून की ज़ुबान बोलने वालो
कायर, ...किराए के ट्टटूओं
हमें दिल की ज़ुबान बोलने दो
अपनी अक़्ल से सोचने के मौके दो
हमारी क़लम पर कुछ लोग सवार कर दिए गए हैं
आदिवासियों की ज़बान काट कर
वे हमें साक्षर करना चाहते हैं
हरिजनों के जिंदा जिस्मों को जलाकर
घरों में उजाला करने वाली ये क़ौम
हादसों का लिबास पहने
समाचारों की तरह घटती है आए दिन
सरकारी समाचारों का
इस से अधिक कोई महत्व होगा...
कि सुनने के बाद सिर्फ़ जानना चाहोगे
’ये समाचार किसने पढ़े!’
’उदघोषक कौन था! .... या वगैरह-वगैरह ।’
और कला पारखी जैसी उधार ली गई
दोयम दर्ज़े की ख़ामोशी में ख़ुद से कहोगे :
’उदघोषक का उच्चारण अच्छा था!’
उच्चारण की शुद्धता का खेल आख़िर कब तक चलेगा!