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संस्कृत लावनी / भारतेंदु हरिश्चंद्र

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कुंज कुंज सखि सत्वरं।
चल चल दयित: प्रतीक्षते त्वां तनोति बहु आदरं।
सर्वा अपि संगता:।
नो दृष्ट्वा त्वां तासि प्रियसखिहरिणा हं प्रेषिता।
मानं तज वल्लभे।
नास्ति श्रीहरिसदृशो दयितो वच्मि इदं ते शुभे।
गतिर्भिन्ना।
परिधेहि निचोलं लघु।
जायते बिलम्बो बहु।
सुंदरि त्वरां त्वं कुरु।
श्रीहरि मानसे वृणु।
चल चल शीघ्रं नोचेत्सव निष्यन्तिहि सुन्दरं।
अन्यद्वन मन्दिरं चल चल दयित:॥1॥
ॠणु वेणुनादमागतं।
त्वदर्थमेव श्रीहरिरेष: समानयत्स्त्रीशतं।
त्वय्येव हरिं सद्रतं।
तवैतार्थीमह प्रमदाशतकं प्रियेण विनियोजितं।
श्रृण्वन्यमृतां संरुतं।
आकरायन्ति सर्वे समाप्यहरिणोमधुरं मतं।
बिभिन्नगति:।
दिशति ते प्रियतमसंदेशं॥
ग्रहीत्वा मदन: पिकवेशं।
जनयति मनसि स्वावेशं॥
समुत्साहयतरेतिलेशं।
न कुरु विलम्बं क्षणमपि मत्वा दुर्ल्लभमौल्याकारं॥
ॠणु वचनं मे हितभरं।
चल चल दयित:॥2॥
सूर्योप्यरतंगत:।
गोपिगोपयितुमभिसरणं तव अंधकारइहतत:॥
दृश्यते पश्यनोमुखं।
कस्यापिहि जीवस्य प्रणयिन्यभिसरणौत्सुखं॥
ब्रज ब्रजेन्द्र कुलनन्दनं।
करोतियत्स्मृनिरपि सखि सकलव्याधे: सुनिकन्दनं।
गति:॥
चन्द्रमुखि चन्द्रंरवे समुदितं॥
करैस्त्वामालाम्बितुमुद्यतं।
आलि अवलोक्य तारावृतं॥
भाति बिष्टयं चन्द्रिकायुतं।
चकोरायितश्चन्द्रस्त्यत्वा स्थलमपि रत्नाकरं॥
मुखं ते दृष्टुं सखि सुन्दरं।
चल चल दयित:॥3॥
परित्यज चंचलमंजीरं।
अवगुण्ठय चन्द्राननसिंह सखि धेहि नील चीरं॥
रमय रसिकेश्वरमाभीरं।
युवतीशतसंग्रामसुरतरमचमेकवीरं॥
भयं त्यज हृदि धारय धीरं।
शोभयस्वमुखकान्तिविराजितरवितनया तीरं॥
गति:॥
मुञ्चमानं मानय वचनं॥
विलम्बं मा कुरु कुरु गमनं।
प्रियांके प्रिये रचय शयनं॥
सुतनुतनु सुखमयमालिजनं।
दासौ दामोदर हरिचन्दौ पार्थयतस्तेवरं॥
वरय राधे त्वं राधावरं।
चल चल दयित: प्रतीक्षते त्वां तनोति बहु आदरं॥4॥
(सन् 1874 को ‘हरिश्चन्द्र मैगज़ीन’ में प्रकाशित)