भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जहां सांस लेना मुहाल है/ सर्वत एम जमाल
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:28, 18 सितम्बर 2010 का अवतरण
जहां सांस लेना मुहाल है
वहाँ लोग खुश हैं, कमाल है
यहीं चाँद रात का हुस्न था
जो सहर हुई तो निढाल है
कोई भेड़ है कोई भेड़िया
कहीं आदमी की मिसाल है
गए वक्त कितना बुलंद था
मगर आज सच पे जवाल है
ये उजाले अब भी हैं शहर में
यही तीरगी को मलाल है
तुझे बाँट डालेगा देखना
तेरे आइने में जो बाल है