भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उस घड़ी जबकि मासूम था / सर्वत एम जमाल

Kavita Kosh से
Firstbot (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:22, 21 सितम्बर 2010 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उस घड़ी जबकि मासूम था
फूल, खुशबू, हवा, चांदनी
मुकुराहत, खनक कहकहे,
टाफियां, लोरियां और माँ
जिन्दगी गुलज़ार थी
मैं कमी जानता ही न था.

सारे सुख मेरे हिस्से में थे
शहजादों सी मेरी बसर
शहजादे मेरे भाई थे
शहजादी सी मेरी बहन
बाप राजा महाराज से
एक हकीकत थी, सपना नहीं

सोचता था बड़ा होके मैं
ताज पहनूँगा जिस दिन यहाँ
बस उसी दिन से दे दूंगा मैं
सारे बच्चों को आज़ादियाँ
मास्टर जायेंगे जेल में
सिलसिले पढ़ने लिखने के फिर
बंद हो जाएंगे देश में
खेलना खेलना, खेलना
रीति होगी मेरे देश की
नीति होगी मेरे देश की
जो भी इसका मुखालिफ हो
सख्त उसको मिलेगी सजा

पर....
पर ज़रा उम्र खिसकी जहां
फिर पता यह चला जिन्दगी
खुशबुओं का बिछौना नहीं
नन्हे हाथों में आ जाए तो
बोझ है ये खिलौना नहीं