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है काग़ज़ पर लिक्खी हुई ज़िन्दगानी / दीप्ति मिश्र

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है काग़ज़ पर लिक्खी हुई ज़िन्दगानी
औ' चारों तरफ़ सिर्फ़ पानी ही पानी

बहुत फ़र्क़ है, फिर भी है एक जैसी
हमारी कहानी, तुम्हारी कहानी

न था कुछ, न होगा, जो है हाल ही है
था माज़ी भी फ़ानी, है फ़र्दा भी फ़ानी

तेरे पास ऐ ज़िन्दगी अपना क्या है
जो है साँस आनी, वही साँस जानी

फ़क़त जिस्म ही, जिस्म से मिल रहे हैं
ये कैसी जवानी ? ये कैसी जवानी ?