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वह शख़्स(3) / शमशेर बहादुर सिंह
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आह तुम क्यों न धँसे
तम-पाषाण-
मेरे मानस-तल में कसमस?
बरस चुके वे बाण
अग्नि के-
पावक-पल के बाण,
जो गिर कर नीरव आँचल में क्षिति के
व्यर्थ बुझे!
मेरा हृदय जला न ,
यद्यपि तपा बहुत वह
अनल छाँह में।
झुलसा भी न गया
पाकर कटु-मादक-तम
अंतिम उल्कापात।