भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क़र्ज़ / गुलज़ार
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:36, 23 सितम्बर 2010 का अवतरण
इतनी मोहलत कहाँ कि घुटनों से
सिर उठाकर फ़लक को देख सको
अपने तुकडे उठाओ दाँतो से
ज़र्रा-ज़र्रा कुरेदते जाओ
वक़्त बैठा हुआ है गर्दन पर
तोड़ता जा रहा है टुकड़ों में
ज़िन्दगी देके भी नहीं चुकते
ज़िन्दगी के जो क़र्ज़ देने हों