भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोनों रह जाएँगे / राजेन्द्र शाह
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:39, 28 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र शाह |संग्रह= }} Category: गुजराती भाषा {{KKCatKavit…)
मैं बिछड़ गया हूं मेले में
इन सबमें मुझे ढूँढ़ो कहीं ।
हो गया बहरा गगन कोलाहल में,
आवाज़ मेरी डूबती यहीं के यहीं
इतनी बह रही रंगों की तरंगें
परिचित मगर कहीं भी दिखता नहीं
थक गये पाँव, धूल भरी हथेली आँखों पर रखूँ
यह सूनापन भला कैसे सहूँ ?
दिवस हो चला धुंधला, जा बैठूँ घाट पर,
सब बिखर जायेंगे और दोनो रह जायेंगे ।
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : क्रान्ति