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तुम्हें देखा और गुलदस्ते हुए / जयकृष्ण राय तुषार

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ऑंख मलते
उठा सोया चांद
बादलों के बीच में रस्ते हुए।

जब कभी सोचा
सुनाऊ गीत
तुम्हें देखा काम में फॅंसते हुए।

अष्टगंधा
हो गयी छूकर तुम्हें
हवा में उड़ती हुई ये धूल,

मौसमों का
रंग रूमानी हुआ
आ गये हम छोड कर स्कूल,

शाख पर
इन खिले फूलों ने
तुम्हें देखा और गुलदस्ते हुए।

पांव लहरों पर
हिलाते धूप में
क्या तुम्हें लगता नहीं है डर,

जब कभी हमने
गुलाबी मन पढा
डायरी में लिखे स्वर्णाक्षर,

पार करती
तुम पहाड़ों को
तुम्हें देखा झील में धॅंसते हुए।

रोज घर में
धूप, पानी, छॉंह
तुम सजाती हो सुबह से शाम,

पांव थक जाते
मगर उफ! तक नहीं
रात होने तक कहां आराम,

खिलखिलाता है
समूचा घर
देखता है जब तुम्हें हॅंसते हुए।