बस में कवि / अमरजीत कौंके
चारों तरफ़
उलझा देने वाली आवाजें हैं
कवि बस में बैठा
कविता सोच रहा है
कण्डक्टर टिकट के लिए आवाज़ लगाता है
ड्राईवर कान फाड़ने जैसा हारन बजाता है
स्पीकर में बजते
अश्लील दो अर्थों के गाने हैं
माताओं की गोद मे रोते बच्चे
कवि शब्दों को स्वरबद्ध कर रहा है
कवि नहीं जानता
बस से कौन उतरता
और कौन चढ़ता है
एक बजुर्ग है
जो अधिक पैसे माँगने पर
कण्डक्टर से लड़ता रहा है
बस कभी धीरे होती है
रूकती है
स्पीड पकड़ती है
कोई बुढ़िया
गाँव की राह पर उतरने के लिए
ड्राईवर से झगड़ती है
कवि बेख़बर कविता सोच रहा है
कविता में वह
अपनी महबूबा के जिस्म के लिए
प्रतीक ढूँढ रहा है
पास बैठे मज़दूर भइये के
पसीने की बदबू से
उसे घिन्न आती है
वह सोच रहा है
कि उसकी महबूबा
कितना महंगा सेंट लगाती है
जिसकी ख़ुशबू
मुर्दों में भी जान डालती है
पर ओफ़ !
इस बस की भीड़
पसीना और बदबू
अच्छे भले इन्सान को
नर्क पहुँचाती है
कवि सिर झटक कर फिर
खिड़की से बाहर देखता है
बिम्बों-प्रतीकों को फिर
शब्दों में चिन-चिन कर रखता है
कवि कविता सोच रहा है
कण्डकटर फिर लम्बी सीटी बजाता है
‘चलो भई आ गया अड्डा’
की आवाज़ लगाता है
कवि मशीन की तरह
बस से उतरता है
महबूबा के बारे में कविता सोचता है
बस में भीड़ थी
पसीना था
बदबू थी
शोर था
बस में कोई
बूढ़ा था
जवान था
साधू था या चोर था
कवि ने इससे क्या लेना
कवि तो कविता सोच रहा है
कवि कविता सोच रहा है
कवि कविता लिख रहा है ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा