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सात कविताएँ-7 / लाल्टू
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मुड़-मुड़ उसके लिए दढ़ियल बरगद बनने की प्रतिज्ञा करता हूँ ।
सन् 2000 में वह, मेरी दाढ़ी खींचने पर धू-धू लपटें उसे घेर लेंगीं ।
मेरी नियति पहाड़ बनने के अलावा और कुछ नहीं ।
उसकी खुली आँखों को सिरहाने तले सँजोता हूँ ।
उड़नखटोले पर बैठते वक़्त वह मेरे पास होगा ।
युद्ध सरदारो, सुनो! मैं उसे बूँद-बूँद अपने सीने में सींचूँगा ।
उसे बादल बन ढँक लूँगा । उसकी आँखों में आँसू बन छल-छल छलकूँगा ।
उसके होंठों में विस्मय की ध्वनि तरंग बन बजूँगा ।
तुम्हारी लपटों को मैं लगातार प्यार की बारिश बन बुझाऊँगा ।