भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूलों का काँटों-सा होना/ उदयप्रताप सिंह

Kavita Kosh से
Bharat wasi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:53, 17 अक्टूबर 2010 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कांटे तो कांटे होते हैं उनके चुभने का क्या रोना ।

मुझको तो अखरा करता है फूलों का काँटों-सा होना ।


युग-युग तक उनकी मिट्टी से फूलों की खुशबू आती है

जिनका जीवन ध्येय रहा है कांटे चुनना कलियाँ बोना ।


बदनामी के पर होते हैं अपने आप उड़ा करती है

मेरे अश्रु बहें बह जाएँ तुम अपना दामन न भिगोना ।


दुनिया वालों की महफ़िल में पहली पंक्ति उन्हें मिलती है

जिनको आता है अवसर पर छुपकर हँसना बन कर रोना ।


वाणी के नभ में दिनकर-सा ‘उदय’ नहीं तू हो सकता है

अगर नहीं तूने सीखा है नये घावों में कलम डुबोना ।